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चाचा चुगलखोर - [ भाग - 1 ] - Chacha Chugalkhor Hindi Story

 चाचा चुगलखोर  [भाग-1]

चाचा चुगलखोर - [ भाग - 1 ] - Chacha Chugalkhor Hindi Story




कहते हैं की गरीब की हाय! कंजूस की चाय और चुगलखोर आदमी की राय नहीं लेनी चाहिये, बाद में बड़ा परेशान करती हैं और इत्तेफाक देखिये अपने खैराबाद वाले चाचा में तो ये तीनो खासियत थी। गरीब भी थे, कंजूस भी थे और चुगलखोर तो खैर थे ही। गरीब तो यूँ मान लीजिये दिल से गरीब थे। चकबंदी में बाबू के औधे से रिटायर हुए थे, गुजर-बसर बढ़िया थी लेकिन मजाल हैं! कभी किसी पर 10 रूप्पइया खर्च कर दे, कंजूसी का आलम ये था की उनके बारे में कहा जाता था की वो अपने 2 मंजिला मकान की सीढ़ियों पर चढ़ते वक्त 2-2 सीढ़ी छोड़ कर चढ़ते थे ताकि चप्पल जल्दी न घिस जाए। और चुगलखोर तो इस कदर थे की राह चलते कोई जरा सा मुखातिब हो जाये तो मोहल्ले भर की चुगलियाँ करने लग जाते थे। किसी ने  पूछा, और चाचा टाइम क्या हुआ हैं? लीजिये बस शुरू हो गए - "बेटा, टाइम बहुत खराब चल रहा हैं, बेटा बाप का नहीं हैं, बाप बेटे का नहीं हैं। इदरीशी साहब को जानते हो ना? अरे वो कोयले की ठेकी वाले, उनके बड़े बेटे ने धोखे से मकान अपने नाम लिखवा लिया हैं। भईया वहीं वाली बात हैं ना, बेटा बोले बाप से सोलह दूनी आठ। अरे बड़ा तमाशा हुआ कल, बहुत गाली-गलोच हुई कल... तौबा, तौबा।  असल में मामला ये ना हैं की उनके दादा ने दो शादियाँ की थी... और फिर.. अरे तुम साइकिल इधर लगा लो ना छाब में, और आराम से सुनो। 


चाचा पेट के बहुत हलके थे, गलती से उनको कोई बात पता चल जाये तो समझ लीजिये की जब तक वो पुरे मोहल्ले को बता नहीं देते थे उनके पेट में मरोड़ होती रहती थी। चाचा का नाम क्या था ये मुझे अभी ठीक-ठीक याद नहीं आ रहा लेकिन हाँ, सब उनको चाचा ही कहते थे। उम्र यही को 60-65 के दरमियानी, बालों में हलकी सफेदी, गले से बाजू तक कड़ा हुआ कुर्ता, पतली कमानी वाला चश्मा और उस पर खड़ी वाली टोपी। हुलिए से किसी संजीदा बुजुर्ग जैसे लगते थे लेकिन असल में थे नहीं। बीबी जवानी में ही साथ छोड़ गई थी औलाद कोई थी नहीं, मस्तमौला आदमी थे, आदमी क्या थे चलता-फिरता रेडियो थे। कोई बात अगर पुरे मोहल्ले में फैलानी हो तो सिर्फ चाचा को बता दीजिए और अगर ज्यादा जल्दी फैलानी हो तो इतना और कह दीजिये की चाचा, "किसी और को बताईएगा नहीं"! बस जी हो गया काम। 



अरे चाचा कहा चल दिए? फिर चल दिए क्या बस अड्डे की तरफ ? एक सुबह जब वो मोहल्ले की चौड़ी सड़क से बस अड्डे की तरफ जा रहे थे तो नुक्कड़ वाले रसूल हलवाई ने जलेबी छानते हुए आवाज लगाई। चाचा ने कंधे पर झूलते हुए बैग को संभालते हुए जवाब दिया- हाँ, रसूल यार इल्हाबलपुर तक जा रहा हूँ, पीर बाबा की मजार तक हो आऊं, जुमेरात हैं ना कल। रसूल आँख मारते हुए बोला, बड़े चक्कर लगा रहे हैं आज-कल, कोई ख़ास मुराद तो नहीं मांग ली हैं। चाचा शर्मीली हँसी-हँसते हुए बोले, "अरे नहीं यार अब क्या मुराद मागेंगे, बस अब मोहल्ले वालों की खैरियत की दुआ करते हैं.... (हँसते हुए ).. हमारा क्या हैं अब सर सजदे में हैं और पैर कब्र में" कहते हुए चाचा बस अड्डे की तरफ चल दिए। 



चाचा के अभी तक के बयान से आप ये मत सोच लीजिएगा की मोहल्ले में चाचा की इज्जत नहीं थी। वे इधर की उधर जरूर लगाते थे पर मोहल्ले के लोग उनको पसंद करते थे और हर कोई उनको अपने पास बिठाने की कोशिश करता था। ना बिठाता तो  दूसरों के घरों की खबरें कहाँ से मिलती। रिकॉर्ड हैं की चाचा ने आज तक सूबेदार की टपरी पर चाय खरीद के नहीं पी थी। कोई ना कोई मिल ही जाता था जो चाचा की चार चुगलियां सुनने के लिए चाय पीला ही देता था लेकिन पूरा मोहल्ला एक तरफ और एक शख्स दूसरी तरफ और वो एक शख्स जिसको चाचा की शक्ल से नफरत थी नाम था, मंसूर खान। उसकी वहीं बड़े बरगद के नीचे परचूने की दूकान थी। आदमी शरीफ थे, ना किसी से लेना, ना किसी को देना बस काम से काम रखते थे। आस्तीन वाली बनियान और पायजामा पहने, कान पर कलम लगाए अपनी दुकान के अंदर अनाज की बोरियों से घिरे हुए लकड़ी के काउंटर के पीछे खड़े  रहते और फटाफट सामान तोलते रहते। 



मंसूर ने आमदनी इज्जत से गुजर बसर की थी। दो बेटे थे मिराज और सिराज। मिराज तो किसी कपडा फैक्ट्री में मजदूरी करता था वहीं सिराज ग्रेजुएट था और शहर में किसी कंपनी के सेल्स डिपार्टमेंट में काम करता था। ग्रेजुएट सिराज की तनख्वा तो काम थी लेकिन मंसूर साहब उससे ज्यादा खुश रहते थे क्योकि वो खानदान का पहला ग्रेजुएट था और किसी कंपनी में जॉब कर रहा था वो भी सेल्स डिपार्टमेंट में,  बोलने बताने में अच्छा लगता था। 


कभी मंसूर भाई की दूकान ही चाचा की बैठक हुआ करती थी यही पूरा दिन बैठ के गप्प मारा करते थे। मंसूर, जो तब उनके दोस्त हुआ करते थे, ग्राहकों का सामान तोला करते और चाचा यहाँ-वहां की सुनते रहते। लेकिन जब चाचा की लगाई भुजाई की आदत से मंसूर को कारोबार में नुकसान होने लगा तो उन्होंने चाचा को समझाया की "चच्चा देखो ऐसा हैं की सौ की सीधी बात हैं, यहां बैठकर ये लगाई भुजाई ना किया करो। हर दूसरे दिन दुकान पर कोई न कोई लट्ठ लेकर पूछ-पूछन को आ जाता हैं। अब सामान तोले की तमाशा देखे,ईमान का डर हैं हमको किसी को कोई चीज चुटकी भर भी कम तौलकर दे तो क्या जवाब देंगे खुदा को?  मंसूर खान ने चाचा को साफ़  कह दिया था की वो अब यहां ना आया करे। बस उसी दिन से मंसूर साहब और चाचा एक-दूसरे के दुश्मन हो गए थे। उसके बाद से तो सूबेदार की टपरी पर चाय सुड़कते हुए चाचा ने मंसूर के बारे में वो-वो बातें लोगों को बताई की क्या बताऊ! 




टिकिट, कहाँ जाना हैं चाचा? बस की सीट पर बैठे चाचा से कंडक्टर ने पूछा तो चाचा बोले, अरे कहां जायेंगे भई! वही पीर मुर्शिद की दरगाह पे, इल्हाबलपुर का टिकिट बना दो और क्या  कंडक्टर ने टिकिट फाड़ कर चाचा की तरफ बड़ा दिया। अभी तक के बयान से आपको लग रहा होगा की चाचा चाहे जैसे हो मिजाज से बड़े सूफियाना होंगे तभी तो हर जुम्मेरात को पीर बाबा की मजार पर जियारत करने चले जाते हैं, हैं ना... लेकिन ऐसा नहीं हैं। ये मजार का चक्कर दरअसल एक दिखावा था। असली वजह तो वहीं थी जिसके आगे दुनिया के बड़े-बड़े पहलवान, शायर, कारोबारी, बादशाह सब ढेर हो गए.... मोहब्बत! जी हाँ, मोहब्बत!



 एक सेर हैं की,

 "कौन कहता हैं की बुढ़ापे में मोहब्बत का सिलसिला नहीं होता, -2 

अरे आम तब तक मजा नहीं देता जब तक पिलपिला नहीं होता"। 😄


चच्चा भी अपने पिलपिले अहसास का बोरा लिए इश्क़ के इस हरियाली भरे रास्ते पर मुस्कुराते हुए चले जा रहे थे अपनी शकूरन से मिलने, जी हां  शकूरन नाम था उस महज़बी का। अब इससे पहले की आपको आगे का किस्सा बताऊ आपको ये बताना जरुरी हो गया हैं की ये शकूरन थी कौन ?


45-46 की उम्र होगी शकूरन की। एक वक्त में चाचा की पड़ोसिन थी वहीं रहती थी नीले छज्जे वाले मकान में जिसके आंगन में अमरुद का पेड़ था।  मंसूर भाई के घर बड़ा आना-जाना था उसका बल्कि मंसूर भाई ने तो उसे अपनी मुँहबोली बहन बनाया था। उनका  नाम यूँ तो कुछ और था लेकिन शौहर का नाम शकूर अली था इसलिए उनको शकूरन के नाम से पुकारा जाने लगा। शौहर के इंतकाल के बाद से वो अकेली थी और अकेले तो चच्चा भी थे..... शकूरन की उम्र ढलान पर थी लेकिन चेहरे पर चमक अभी भी थी, जरा कायदे से ओढ़ पहन लेती थी तो नई लड़कियाँ भी रश करती थी। सितारों वाला सूट पहन के जब वो मोहल्ले की मज्लिशों में शामिल होती तो चाचा उनको आँख भर के देखते । मोहल्ले की शादी में मुलाकात हो जाती तो जानबूझकर सामने पहुंच जाते और फिर कहते.... अरे! आप चलिए मुलाकात हो गई हैं, भई बड़े दिन हो गए हैं आपने अंडा-सालद नहीं खिलाया, बुलाइये कभी। फिर बिरयानी खाते हुए लोगो की तरफ देखते हुए कहते, कसम इमान की आपके हाथों से बने अंडा-सालद के आगे ये बिरयानी कुछ नहीं हैं। वो शर्माते हुए कहती, "आप जब चाहे आ जाए, आपको कोई दावत थोड़ी देंगे, आपका अपना घर हैं। बस ये सुनते ही चाचा की आँखों के सामने एक मंजर उभरता और वो ये की शकूरन सैकड़ो अंडो के बीच चाचा के साथ हैं और दोनों एक-दूसरे का हाथ पकडे मोहब्बत के नाजुक लम्हे गुजार रहे हैं। लेकिन इन दिनों सकुरान पे ना जाने क्या भूत सबार हो गया था की उन्होंने इल्हाबलपुर वाले पीर बाबा की मजार से लौ लगा ली थी। अब तो वहीं रहती थी और अब तो मजार के पास किराए का घर भी ले लिया था। कहती थी की "अब हर हफ्ते आना होता हैं, कौन बार-बार बस का सफर करे तो बस उसी शकूरन से मिलने चले जा रहे थे हमारे चाचा।


बस को चले साढ़े 5 घंटे हो गए थे। मुबारकपुर मंडी से बस क्रॉस हुई ही थी की बस जरा आहिस्ता हुई और एक डिपो पर रुक गई जहां पहले से कई और बसें खड़ी थी। बस में कुछ सवारियाँ चढ़ने-उतरने लगी तभी चाचा की नजर दूर खड़ी एक रोडवेज बस के अंदर गई। उनको एक जाना-पहचाना चेहरा दिखाई दिया, अरे ये तो सिराज हैं, मंसूर खान का ग्रेजुएट बेटा ये यहाँ क्या कर रहा हैं। सिराज, जो की खानदान का पहला ग्रेजुएट था जिसकी डिग्री के ऊपर मंसूर खान को रश्क था, जिसकी सेल्स वाली नौकरी के बारे में पुरे मोहल्ले में तस्किरा किया करते थे। वो उस बस में एक बैग कंधे पर टाँगे कह रहा था - ऐ भाईजान, ऐ बहनजी दो मिनट लूंगा आपका जरा ध्यान दीजिये, मौसम खराब हैं पेट में जलन होती हैं,  बदहज़मी होती, गैस होती हैं मरोड़ होती हैं जबान पर छाले निकल आते हैं, खाना खाते हैं बदन में लगता नहीं हैं, आँखे जलती है, कमजोरी रहती हैं, बीबी ताना मारती हैं  तो हमारी यूनानी कंपनी ने बनाया हैं लुकुआन हलुआ, दो चम्मच रोज गरम पानी में लेंगे तो हफ्ते में आराम होगा। कंपनी का प्रचार आपका फायदा, जिस भाई को चाहिए, बड़ी बोतल 40 रूपये छोटी बोतल 25 रूपये में दी जा रही हैं, आइए, आइए। 😄


चाचा कई बार आँखे मल चुके थे और फैली हुई आँखों से सिराज को देख रहे थे। ये हैं सेल्स डिपार्टमेंट! उनके पेट में दर्द शुरू हो गया था। अरे भई, ये खबर पुरे मोहल्ले को सुनानी जो थी.......... 



तो क्या मोहब्बत के सफर पर निकले चाचा अपने दुश्मन मंसूर खान के ग्रेजुएट बेटे की हकीकत पुरे मोहल्ले को बता देंगे और शकूरन की मोहब्बत उन्हें कैसे हासिल होगी ? .... जानने के लिए पढ़ियेगा कहानी का दूसरा हिस्सा .... चाचा चुगलखोर - भाग 2 


Read more:  चाचा चुगलखोर - [ भाग - 2 ] Hindi Story  



धन्यवाद, मैं आशा करता हूँ की आपको ये कहानी पसंद आई होगी। अगर आपको ये कहानी पसंद आई हैं तो please comment करके बताये।🙂



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